भक्तामर स्तोत्र (Bhaktamara Stotra) जैन धर्म का एक महत्वपूर्ण स्तोत्र है। यह स्तोत्र आचार्य मानतुंग सुरीजी द्वारा रचित है। यह जैन परंपरा का एक लोकप्रिय प्रार्थना स्तोत्र है। एक प्रचलित कथा के अनुसार जब आचार्य मानतुंग सरीजी राजा भोज के कारावास में बंद थे तब उस कारावास में 48 दरवाजे थे जिसमे 48 ताला लगा हुआ था जब आचार्य इस स्तोत्र की रचना करते गए तब प्रत्येक श्लोक के साथ एक टाला टूटता जाता था इस प्रकार 48 श्लोक पूर्ण होने के बाद सभी 48 ताले टूट गए।
विषय सूची
भक्तामर स्तोत्र संस्कृत में (Bhaktamara Stotra In Sanskrit)
भक्तामर-प्रणत-मौलि-मणि-प्रभाणा-
मुद्योतकं दलित-पाप-तमो-वितानम् ।
सम्यक्-प्रणम्य जिन प-पाद-युगं युगादा-
वालम्बनं भव-जले पततां जनानाम् ॥1॥
य: संस्तुत: सकल-वां मय-तत्त्व-बोधा-
दुद्भूत-बुद्धि-पटुभि: सुर-लोक-नाथै: ।
स्तोत्रैर्जगत्-त्रितय-चित्त-हरैरुदारै:,
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥2॥
बुद्ध्या विनापि विबुधार्चित-पाद-पीठ!
स्तोतुं समुद्यत-मतिर्विगत-त्रपोऽहम् ।
बालं विहाय जल-संस्थित-मिन्दु-बिम्ब-
मन्य: क इच्छति जन: सहसा ग्रहीतुम् ॥3॥
वक्तुं गुणान्गुण-समुद्र ! शशांक-कान्तान्,
कस्ते क्षम: सुर-गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्ध्या ।
कल्पान्त-काल-पवनोद्धत-नक्र-चक्रं ,
को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ॥4॥
सोऽहं तथापि तव भक्ति-वशान्मुनीश!
कर्तुं स्तवं विगत-शक्ति-रपि प्रवृत्त: ।
प्रीत्यात्म-वीर्य-मविचार्य मृगी मृगेन्द्रम्
नाभ्येति किं निज-शिशो: परिपालनार्थम् ॥5॥
अल्प-श्रुतं श्रुतवतां परिहास-धाम,
त्वद्-भक्तिरेव मुखरी-कुरुते बलान्माम् ।
यत्कोकिल: किल मधौ मधुरं विरौति,
तच्चाम्र-चारु-कलिका-निकरैक-हेतु: ॥6॥
त्वत्संस्तवेन भव-सन्तति-सन्निबद्धं,
पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम् ।
आक्रान्त-लोक-मलि-नील-मशेष-माशु,
सूर्यांशु-भिन्न-मिव शार्वर-मन्धकारम् ॥7॥
मत्वेति नाथ! तव संस्तवनं मयेद,-
मारभ्यते तनु-धियापि तव प्रभावात् ।
चेतो हरिष्यति सतां नलिनी-दलेषु,
मुक्ता-फल-द्युति-मुपैति ननूद-बिन्दु: ॥8॥
आस्तां तव स्तवन-मस्त-समस्त-दोषं,
त्वत्संकथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति ।
दूरे सहस्रकिरण: कुरुते प्रभैव,
पद्माकरेषु जलजानि विकासभांजि ॥9॥
नात्यद्-भुतं भुवन-भूषण ! भूूत-नाथ!
भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्त-मभिष्टुवन्त: ।
तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा
भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥10॥
दृष्ट्वा भवन्त मनिमेष-विलोकनीयं,
नान्यत्र-तोष-मुपयाति जनस्य चक्षु: ।
पीत्वा पय: शशिकर-द्युति-दुग्ध-सिन्धो:,
क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत्?॥11॥
यै: शान्त-राग-रुचिभि: परमाणुभिस्-त्वं,
निर्मापितस्-त्रि-भुवनैक-ललाम-भूत !
तावन्त एव खलु तेऽप्यणव: पृथिव्यां,
यत्ते समान-मपरं न हि रूप-मस्ति ॥12॥
वक्त्रं क्व ते सुर-नरोरग-नेत्र-हारि,
नि:शेष-निर्जित-जगत्त्रितयोपमानम् ।
बिम्बं कलंक-मलिनं क्व निशाकरस्य,
यद्वासरे भवति पाण्डुपलाश-कल्पम् ॥13॥
सम्पूर्ण-मण्डल-शशांक-कला-कलाप-
शुभ्रा गुणास्-त्रि-भुवनं तव लंघयन्ति ।
ये संश्रितास्-त्रि-जगदीश्वरनाथ-मेकं,
कस्तान् निवारयति संचरतो यथेष्टम् ॥14॥
चित्रं-किमत्र यदि ते त्रिदशांग-नाभिर्-
नीतं मनागपि मनो न विकार-मार्गम् ।
कल्पान्त-काल-मरुता चलिताचलेन,
किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित् ॥15॥
निर्धूम-वर्ति-रपवर्जित-तैल-पूर:,
कृत्स्नं जगत्त्रय-मिदं प्रकटीकरोषि ।
गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां,
दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाश: ॥16॥
नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्य:,
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्-जगन्ति ।
नाम्भोधरोदर-निरुद्ध-महा-प्रभाव:,
सूर्यातिशायि-महिमासि मुनीन्द्र! लोके ॥17॥
नित्योदयं दलित-मोह-महान्धकारं,
गम्यं न राहु-वदनस्य न वारिदानाम् ।
विभ्राजते तव मुखाब्ज-मनल्पकान्ति,
विद्योतयज्-जगदपूर्व-शशांक-बिम्बम् ॥18॥
किं शर्वरीषु शशिनाह्नि विवस्वता वा,
युष्मन्मुखेन्दु-दलितेषु तम:सु नाथ!
निष्पन्न-शालि-वन-शालिनी जीव-लोके,
कार्यं कियज्जल-धरै-र्जल-भार-नमै्र: ॥19॥
ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं,
नैवं तथा हरि-हरादिषु नायकेषु ।
तेजो महा मणिषु याति यथा महत्त्वं,
नैवं तु काच-शकले किरणाकुलेऽपि ॥20॥
मन्ये वरं हरि-हरादय एव दृष्टा,
दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति ।
किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्य:,
कश्चिन्मनो हरति नाथ ! भवान्तरेऽपि ॥21॥
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्,
नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता ।
सर्वा दिशो दधति भानि सहस्र-रश्मिं,
प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशु-जालम् ॥22॥
त्वामामनन्ति मुनय: परमं पुमांस-
मादित्य-वर्ण-ममलं तमस: पुरस्तात् ।
त्वामेव सम्य-गुपलभ्य जयन्ति मृत्युं,
नान्य: शिव: शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्था: ॥23॥
त्वा-मव्ययं विभु-मचिन्त्य-मसंख्य-माद्यं,
ब्रह्माणमीश्वर-मनन्त-मनंग-केतुम् ।
योगीश्वरं विदित-योग-मनेक-मेकं,
ज्ञान-स्वरूप-ममलं प्रवदन्ति सन्त: ॥24॥
बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित-बुद्धि-बोधात्,
त्वं शंकरोऽसि भुवन-त्रय-शंकरत्वात् ।
धातासि धीर! शिव-मार्ग विधेर्विधानाद्,
व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि ॥25॥
तुभ्यं नमस्-त्रिभुवनार्ति-हराय नाथ!
तुभ्यं नम: क्षिति-तलामल-भूषणाय ।
तुभ्यं नमस्-त्रिजगत: परमेश्वराय,
तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि-शोषणाय ॥26॥
को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणै-रशेषैस्-
त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश !
दोषै-रुपात्त-विविधाश्रय-जात-गर्वै:,
स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ॥27॥
उच्चै-रशोक-तरु-संश्रितमुन्मयूख-
माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम् ।
स्पष्टोल्लसत्-किरण-मस्त-तमो-वितानं,
बिम्बं रवेरिव पयोधर-पाश्र्ववर्ति ॥28॥
सिंहासने मणि-मयूख-शिखा-विचित्रे,
विभ्राजते तव वपु: कनकावदातम् ।
बिम्बं वियद्-विलस-दंशुलता-वितानं
तुंगोदयाद्रि-शिरसीव सहस्र-रश्मे: ॥29॥
कुन्दावदात-चल-चामर-चारु-शोभं,
विभ्राजते तव वपु: कलधौत-कान्तम् ।
उद्यच्छशांक-शुचिनिर्झर-वारि-धार-
मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ॥30॥
छत्रत्रयं-तव-विभाति शशांककान्त,
मुच्चैः स्थितं स्थगित भानुकर-प्रतापम् ।
मुक्ताफल-प्रकरजाल-विवृद्धशोभं,
प्रख्यापयत्त्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ॥31॥
गम्भीर-तार-रव-पूरित-दिग्विभागस्-
त्रैलोक्य-लोक-शुभ-संगम-भूति-दक्ष: ।
सद्धर्म-राज-जय-घोषण-घोषक: सन्,
खे दुन्दुभि-ध्र्वनति ते यशस: प्रवादी ॥32॥
मन्दार-सुन्दर-नमेरु-सुपारिजात-
सन्तानकादि-कुसुमोत्कर-वृष्टि-रुद्घा ।
गन्धोद-बिन्दु-शुभ-मन्द-मरुत्प्रपाता,
दिव्या दिव: पतति ते वचसां ततिर्वा ॥33॥
शुम्भत्-प्रभा-वलय-भूरि-विभा-विभोस्ते,
लोक-त्रये-द्युतिमतां द्युति-माक्षिपन्ती ।
प्रोद्यद्-दिवाकर-निरन्तर-भूरि-संख्या,
दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोमसौम्याम् ॥34॥
स्वर्गापवर्ग-गम-मार्ग-विमार्गणेष्ट:,
सद्धर्म-तत्त्व-कथनैक-पटुस्-त्रिलोक्या: ।
दिव्य-ध्वनि-र्भवति ते विशदार्थ-सर्व-
भाषास्वभाव-परिणाम-गुणै: प्रयोज्य: ॥35॥
उन्निद्र-हेम-नव-पंकज-पुंज-कान्ती,
पर्युल्-लसन्-नख-मयूख-शिखाभिरामौ ।
पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र ! धत्त:,
पद्मानि तत्र विबुधा: परिकल्पयन्ति ॥36॥
इत्थं यथा तव विभूति-रभूज्-जिनेन्द्र्र !
धर्मोपदेशन-विधौ न तथा परस्य ।
यादृक्-प्र्रभा दिनकृत: प्रहतान्धकारा,
तादृक्-कुतो ग्रहगणस्य विकासिनोऽपि ॥37॥
श्च्यो-तन्-मदाविल-विलोल-कपोल-मूल,
मत्त-भ्रमद्-भ्रमर-नाद-विवृद्ध-कोपम् ।
ऐरावताभमिभ-मुद्धत-मापतन्तं
दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम् ॥38॥
भिन्नेभ-कुम्भ-गल-दुज्ज्वल-शोणिताक्त,
मुक्ता-फल-प्रकरभूषित-भूमि-भाग: ।
बद्ध-क्रम: क्रम-गतं हरिणाधिपोऽपि,
नाक्रामति क्रम-युगाचल-संश्रितं ते ॥39॥
कल्पान्त-काल-पवनोद्धत-वह्नि-कल्पं,
दावानलं ज्वलित-मुज्ज्वल-मुत्स्फुलिंगम् ।
विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुख-मापतन्तं,
त्वन्नाम-कीर्तन-जलं शमयत्यशेषम् ॥40॥
रक्तेक्षणं समद-कोकिल-कण्ठ-नीलम्,
क्रोधोद्धतं फणिन-मुत्फण-मापतन्तम् ।
आक्रामति क्रम-युगेण निरस्त-शंकस्-
त्वन्नाम-नागदमनी हृदि यस्य पुंस: ॥41॥
वल्गत्-तुरंग-गज-गर्जित-भीमनाद-
माजौ बलं बलवता-मपि-भूपतीनाम् ।
उद्यद्-दिवाकर-मयूख-शिखापविद्धं
त्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति: ॥42॥
कुन्ताग्र-भिन्न-गज-शोणित-वारिवाह,
वेगावतार-तरणातुर-योध-भीमे ।
युद्धे जयं विजित-दुर्जय-जेय-पक्षास्-
त्वत्पाद-पंकज-वनाश्रयिणो लभन्ते: ॥43॥
अम्भोनिधौ क्षुभित-भीषण-नक्र-चक्र-
पाठीन-पीठ-भय-दोल्वण-वाडवाग्नौ ।
रंगत्तरंग-शिखर-स्थित-यान-पात्रास्-
त्रासं विहाय भवत: स्मरणाद्-व्रजन्ति: ॥44॥
उद्भूत-भीषण-जलोदर-भार-भुग्ना:,
शोच्यां दशा-मुपगताश्-च्युत-जीविताशा: ।
त्वत्पाद-पंकज-रजो-मृत-दिग्ध-देहा:,
मत्र्या भवन्ति मकर-ध्वज-तुल्यरूपा: ॥45॥
आपाद-कण्ठमुरु-शृंखल-वेष्टितांगा,
गाढं-बृहन्-निगड-कोटि निघृष्ट-जंघा: ।
त्वन्-नाम-मन्त्र-मनिशं मनुजा: स्मरन्त:,
सद्य: स्वयं विगत-बन्ध-भया भवन्ति: ॥46॥
मत्त-द्विपेन्द्र-मृग-राज-दवानलाहि-
संग्राम-वारिधि-महोदर-बन्ध-नोत्थम् ।
तस्याशु नाश-मुपयाति भयं भियेव,
यस्तावकं स्तव-मिमं मतिमानधीते: ॥47॥
स्तोत्र-स्रजं तव जिनेन्द्र गुणैर्निबद्धाम्,
भक्त्या मया विविध-वर्ण-विचित्र-पुष्पाम् ।
धत्ते जनो य इह कण्ठ-गता-मजस्रं,
तं मानतुंग-मवशा-समुपैति लक्ष्मी: ॥48॥
यह स्तोत्र भी देखे
भक्तामर स्तोत्र हिंदी में (Bhaktamara Stotra In Hindi)
आदिपुरुष आदीश जिन,
आदि सुविधि करतार ।
धरम-धुरंधर परमगुरु,
नमूं आदि अवतार ॥
॥ चौपाई ॥
सुर-नत-मुकुट रतन-छवि करें,
अंतर पाप-तिमिर सब हरें ।
जिनपद वंदूं मन वच काय,
भव-जल-पतित उधरन-सहाय ॥1॥
श्रुत-पारग इंद्रादिक देव,
जाकी थुति कीनी कर सेव ।
शब्द मनोहर अरथ विशाल,
तिन प्रभु की वरनूं गुन-माल ॥2॥
विबुध-वंद्य-पद मैं मति-हीन,
हो निलज्ज थुति मनसा कीन ।
जल-प्रतिबिंब बुद्ध को गहे,
शशिमंडल बालक ही चहे ॥3॥
गुन-समुद्र तुम गुन अविकार,
कहत न सुर-गुरु पावें पार ।
प्रलय-पवन-उद्धत जल-जंतु,
जलधि तिरे को भुज बलवंतु ॥4॥
सो मैं शक्ति-हीन थुति करूँ,
भक्ति-भाव-वश कछु नहिं डरूँ ।
ज्यों मृगि निज-सुत पालन हेत,
मृगपति सन्मुख जाय अचेत ॥5॥
मैं शठ सुधी-हँसन को धाम,
मुझ तव भक्ति बुलावे राम ।
ज्यों पिक अंब-कली परभाव,
मधु-ऋतु मधुर करे आराव ॥6॥
तुम जस जंपत जन छिन माँहिं,
जनम-जनम के पाप नशाहिं ।
ज्यों रवि उगे फटे ततकाल,
अलिवत् नील निशा-तम-जाल ॥7॥
तव प्रभाव तें कहूँ विचार,
होसी यह थुति जन-मन-हार ।
ज्यों जल कमल-पत्र पे परे,
मुक्ताफल की द्युति विस्तरे ॥8॥
तुम गुन-महिमा-हत दु:ख-दोष,
सो तो दूर रहो सुख-पोष ।
पाप-विनाशक है तुम नाम,
कमल-विकासी ज्यों रवि-धाम ॥9॥
नहिं अचंभ जो होहिं तुरंत,
तुमसे तुम-गुण वरणत संत ।
जो अधीन को आप समान,
करे न सो निंदित धनवान ॥10॥
इकटक जन तुमको अवलोय,
अवर विषै रति करे न सोय ।
को करि क्षार-जलधि जल पान,
क्षीर नीर पीवे मतिमान ॥11॥
प्रभु! तुम वीतराग गुण-लीन,
जिन परमाणु देह तुम कीन ।
हैं तितने ही ते परमाणु,
या तें तुम सम रूप न आनु ॥12॥
कहँ तुम मुख अनुपम अविकार,
सुर-नर-नाग-नयन-मन हार ।
कहाँ चंद्र-मंडल सकलंक,
दिन में ढाक-पत्र सम रंक ॥13॥
पूरन-चंद्र-ज्योति छविवंत,
तुम गुन तीन जगत् लंघंत ।
एक नाथ त्रिभुवन-आधार,
तिन विचरत को करे निवार ॥14॥
जो सुर-तिय विभ्रम आरम्भ,
मन न डिग्यो तुम तोउ न अचंभ ।
अचल चलावे प्रलय समीर,
मेरु-शिखर डगमगें न धीर ॥15॥
धूम-रहित बाती गत नेह,
परकाशे त्रिभुवन-घर एह ।
वात-गम्य नाहीं परचंड,
अपर दीप तुम बलो अखंड ॥16॥
छिपहु न लुपहु राहु की छाहिं,
जग-परकाशक हो छिन-माहिं ।
घन-अनवर्त दाह विनिवार,
रवि तें अधिक धरो गुणसार ॥17॥
सदा उदित विदलित तममोह,
विघटित मेघ-राहु-अवरोह ।
तुम मुख-कमल अपूरब चंद,
जगत्-विकाशी जोति अमंद ॥18॥
निश-दिन शशि रवि को नहिं काम,
तुम मुख-चंद हरे तम-धाम ।
जो स्वभाव तें उपजे नाज,
सजल मेघ तें कौनहु काज ॥19॥
जो सुबोध सोहे तुम माँहिं,
हरि हर आदिक में सो नाहिं ।
जो द्युति महा-रतन में होय,
कांच-खंड पावे नहिं सोय ॥20॥
॥ नाराच ॥
सराग देव देख मैं भला विशेष मानिया ।
स्वरूप जाहि देख वीतराग तू पिछानिया ॥
कछू न तोहि देखके जहाँ तुही विशेखिया ।
मनोग चित्त-चोर ओर भूल हू न पेखिया ॥21॥
अनेक पुत्रवंतिनी नितंबिनी सपूत हैं ।
न तो समान पुत्र और मात तें प्रसूत हैं ॥
दिशा धरंत तारिका अनेक कोटि को गिने ।
दिनेश तेजवंत एक पूर्व ही दिशा जने ॥22॥
पुरान हो पुमान हो पुनीत पुण्यवान हो ।
कहें मुनीश! अंधकार-नाश को सुभानु हो ॥
महंत तोहि जान के न होय वश्य काल के ।
न और मोहि मोक्ष पंथ देय तोहि टाल के ॥23॥
अनंत नित्य चित्त की अगम्य रम्य आदि हो ।
असंख्य सर्वव्यापि विष्णु ब्रह्म हो अनादि हो ॥
महेश कामकेतु योग ईश योग ज्ञान हो ।
अनेक एक ज्ञानरूप शुद्ध संतमान हो ॥24॥
तुही जिनेश! बुद्ध है सुबुद्धि के प्रमान तें ।
तुही जिनेश! शंकरो जगत्त्रयी विधान तें ॥
तुही विधात है सही सुमोख-पंथ धार तें ।
नरोत्तमो तुही प्रसिद्ध अर्थ के विचार तें ॥25॥
नमो करूँ जिनेश! तोहि आपदा निवार हो ।
नमो करूँ सु भूरि भूमि-लोक के सिंगार हो ॥
नमो करूँ भवाब्धि-नीर-राशि-शोष-हेतु हो ।
नमो करूँ महेश! तोहि मोख-पंथ देतु हो ॥26॥
॥ चौपाई ॥
तुम जिन पूरन गुन-गन भरे,
दोष गर्व करि तुम परिहरे ।
और देव-गण आश्रय पाय
स्वप्न न देखे तुम फिर आय ॥27॥
तरु अशोक-तल किरन उदार,
तुम तन शोभित है अविकार ।
मेघ निकट ज्यों तेज फुरंत,
दिनकर दिपे तिमिर निहनंत ॥28॥
सिंहासन मणि-किरण-विचित्र,
ता पर कंचन-वरन पवित्र ।
तुम तन शोभित किरन विथार,
ज्यों उदयाचल रवि तम-हार ॥29॥
कुंद-पुहुप-सित-चमर ढ़ुरंत,
कनक-वरन तुम तन शोभंत ।
ज्यों सुमेरु-तट निर्मल कांति,
झरना झरे नीर उमगांति ॥30॥
ऊँचे रहें सूर-दुति लोप,
तीन छत्र तुम दिपें अगोप ।
तीन लोक की प्रभुता कहें,
मोती झालरसों छवि लहें ॥31॥
दुंदुभि-शब्द गहर गंभीर,
चहुँ दिशि होय तुम्हारे धीर ।
त्रिभुवन-जन शिव-संगम करें,
मानो जय-जय रव उच्चरें ॥32॥
मंद पवन गंधोदक इष्ट,
विविध कल्पतरु पुहुप सुवृष्ट ।
देव करें विकसित दल सार,
मानो द्विज-पंकति अवतार ॥33॥
तुम तन-भामंडल जिन-चंद,
सब दुतिवंत करत हैं मंद ।
कोटि संख्य रवि-तेज छिपाय,
शशि निर्मल निशि करे अछाय ॥34॥
स्वर्ग-मोख-मारग संकेत,
परम-धरम उपदेशन हेत ।
दिव्य वचन तुम खिरें अगाध,
सब भाषा-गर्भित हित-साध ॥35॥
॥ दोहा ॥
विकसित-सुवरन-कमल-दुति,
नख-दुति मिलि चमकाहिं ।
तुम पद पदवी जहँ धरो,
तहँ सुर कमल रचाहिं ॥36॥
ऐसी महिमा तुम-विषै,
और धरे नहिं कोय ।
सूरज में जो जोत है,
नहिं तारा-गण होय ॥37॥
॥ षट्पद ॥
मद-अवलिप्त-कपोल-मूल अलि-कुल झँकारें ।
तिन सुन शब्द प्रचंड क्रोध उद्धत अति धारें ॥
काल-वरन विकराल कालवत् सनमुख आवे ।
ऐरावत सो प्रबल सकल जन भय उपजावे ॥
देखि गयंद न भय करे, तुम पद-महिमा लीन ।
विपति-रहित संपति-सहित, वरतैं भक्त अदीन ॥38॥
अति मद-मत्त गयंद कुंभ-थल नखन विदारे ।
मोती रक्त समेत डारि भूतल सिंगारे ॥
बाँकी दाढ़ विशाल वदन में रसना लोले ।
भीम भयानक रूप देख जन थरहर डोले ॥
ऐसे मृग-पति पग-तले, जो नर आयो होय ।
शरण गये तुम चरण की, बाधा करे न सोय ॥39॥
प्रलय-पवनकरि उठी आग जो तास पटंतर ।
वमे फुलिंग शिखा उतंग पर जले निरंतर ॥
जगत् समस्त निगल्ल भस्म कर देगी मानो ।
तड़-तड़ाट दव-अनल जोर चहुँ-दिशा उठानो ॥
सो इक छिन में उपशमे, नाम-नीर तुम लेत ।
होय सरोवर परिनमे, विकसित-कमल समेत ॥40॥
कोकिल-कंठ-समान श्याम-तन क्रोध जलंता ।
रक्त-नयन फुंकार मार विष-कण उगलंता ॥
फण को ऊँचा करे वेगि ही सन्मुख धाया ।
तव जन होय नि:शंक देख फणपति को आया ॥
जो चाँपे निज पग-तले, व्यापे विष न लगार ।
नाग-दमनि तुम नाम की, है जिनके आधार ॥41॥
जिस रन माहिं भयानक रव कर रहे तुरंगम ।
घन-सम गज गरजाहिं मत्त मानों गिरि-जंगम ॥
अति-कोलाहल-माँहिं बात जहँ नाहिं सुनीजे ।
राजन को परचंड देख बल धीरज छीजे ॥
नाथ तिहारे नाम तें, अघ छिन माँहि पलाय ।
ज्यों दिनकर परकाश तें, अंधकार विनशाय ॥42॥
मारें जहाँ गयंद-कुंभ हथियार विदारे ।
उमगे रुधिर-प्रवाह वेग जल-सम विस्तारे ॥
होय तिरन असमर्थ महाजोधा बलपूरे ।
तिस रन में जिन तोर भक्त जे हैं नर सूरे ॥
दुर्जय अरिकुल जीतके, जय पावें निकलंक ।
तुम पद-पंकज मन बसें, ते नर सदा निशंक ॥43॥
नक्र चक्र मगरादि मच्छ-करि भय उपजावे ।
जा में बड़वा अग्नि दाह तें नीर जलावे ॥
पार न पावे जास थाह नहिं लहिये जाकी ।
गरजे अतिगंभीर लहर की गिनति न ताकी ॥
सुख सों तिरें समुद्र को, जे तुम गुन सुमिराहिं ।
लोल-कलोलन के शिखर, पार यान ले जाहिं ॥44॥
महा जलोदर रोग-भार पीड़ित नर जे हैं ।
वात पित्त कफ कुष्ट आदि जो रोग गहे हैं ॥
सोचत रहें उदास नाहिं जीवन की आशा ।
अति घिनावनी देह धरें दुर्गंधि-निवासा ॥
तुम पद-पंकज-धूल को, जो लावें निज-अंग ।
ते नीरोग शरीर लहि, छिन में होंय अनंग ॥45॥
पाँव कंठ तें जकड़ बाँध साँकल अतिभारी ।
गाढ़ी बेड़ी पैर-माहिं जिन जाँघ विदारी ॥
भूख-प्यास चिंता शरीर-दु:ख जे विललाने ।
सरन नाहिं जिन कोय भूप के बंदीखाने ॥
तुम सुमिरत स्वयमेव ही, बंधन सब खुल जाहिं ।
छिन में ते संपति लहें, चिंता भय विनसाहिं ॥46॥
महामत्त गजराज और मृगराज दवानल ।
फणपति रण-परचंड नीर-निधि रोग महाबल ॥
बंधन ये भय आठ डरपकर मानों नाशे ।
तुम सुमिरत छिनमाहिं अभय थानक परकाशे ॥
इस अपार-संसार में, शरन नाहिं प्रभु कोय ।
यातैं तुम पदभक्त को भक्ति सहाई होय ॥47॥
यह गुनमाल विशाल नाथ! तुम गुनन सँवारी ।
विविध-वर्णमय-पुहुप गूँथ मैं भक्ति विथारी ॥
जे नर पहिरें कंठ भावना मन में भावें ।
‘मानतुंग’-सम निजाधीन शिवलक्ष्मी पावें ॥
भाषा-भक्तामर कियो, ‘हेमराज’ हित-हेत ।
जे नर पढ़ें सुभाव-सों, ते पावें शिव-खेत ॥48॥
भक्तामर स्तोत्र वीडियो (Bhaktamara Stotra)
भक्तामर स्तोत्र विधि (Bhaktamara Stotra Vidhi)
- भक्तामर स्तोत्र (Bhaktamar Stotra) का पाठ किसी भी समय किया जा सकता है, लेकिन प्रातः काल या संध्या काल में करना लाभदायक माना जाता है।
- भक्तामर स्तोत्र (Bhaktamara Stotra) का पाठ साफ और शांत स्थान पर किया जाना चाहिए।
- भक्तामर स्तोत्र(Bhaktamara Stotra) का पाठ करने के लिए धूपबत्ती, अगरबत्ती, फल, फूल, और जल की आवश्यकता होती है।
भक्तामर स्तोत्र लाभ (Bhaktamara Stotra Benefit)
- भक्तामर स्तोत्र (Bhaktamara Stotra) का नियमित पाठ मोक्ष, आत्मा की मुक्ति प्राप्त करने के मार्ग पर ले जाने में मददगार माना जाता है।
- भक्तामर स्तोत्र (Bhaktamara Stotra) का पाठ करने से पूर्व जन्म और वर्तमान जन्म के कर्मों को कम करने में सहायता मिलती है, जिससे आध्यात्मिक प्रगति होती है।
- भक्तामर स्तोत्र (Bhaktamara Stotra) में प्रभु का स्मरण और भक्ति भाव गहराई से जगाने से ध्यान और एकाग्रता बढ़ती है।
- भक्तामर स्तोत्र (Bhaktamara Stotra) करने से आत्मा को पापों के प्रभाव से मुक्त करने में मदद मिलती है।
- भक्तामर स्तोत्र (Bhaktamara Stotra) को मनोकामना पूर्ति का माध्यम भी माना जाता है। श्रद्धा और सच्चे भाव से किया गया पाठ मनोकामनाओं को पूर्ण करने में सहायक हो सकता है।
- भक्तामर स्तोत्र (Bhaktamara Stotra) का पाठ करने से आंतरिक शांति और सुकून मिलता है, जिससे भय और चिंता दूर करने में मदद मिलती है।
- जैन धर्म में यह विश्वास है कि भक्तामर स्तोत्र का पाठ शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य दोनों को अच्छा कर सकता है।
- घर-परिवार में, प्रेम और शांति का वातावरण बनाने में भक्तामर स्तोत्र प्रभावी माना जाता है।
- भक्तामर स्तोत्र (Bhaktamara Stotra) में भगवान की कृपा पाने का भाव होने से कार्यक्षेत्र में सफलता और उन्नति प्राप्त करने में सहायता मिलती है।
भक्तामर स्तोत्र PDF
भक्तामर स्तोत्र FAQ
भक्तामर स्तोत्र (Bhaktamara Stotra) किसके द्वारा रचित है ?
भक्तामर स्तोत्र (Bhaktamar Stotra) 7वीं शताब्दी के जैन आचार्य मानतुंगजी द्वारा रचित है
भक्तामर स्तोत्र (Bhaktamara Stotra) में कितने श्लोक हैं?
भक्तामर स्तोत्र (Bhaktamar Stotra) में 48 श्लोक हैं।
भक्तामर स्तोत्र (Bhaktamara Stotra) में किस देवता की स्तुति की जाती है ?
भक्तामर स्तोत्र (Bhaktamar Stotra) में भगवान आदिनाथ की स्तुति की जाती है।
भक्तामर स्तोत्र (Bhaktamara Stotra) किस भाषा में लिखा गया है?
भक्तामर स्तोत्र (Bhaktamar Stotra) संस्कृत भाषा में लिखा गया है। इसका हिंदी संस्करण भी उपलब्ध है।
भक्तामर स्तोत्र (Bhaktamar Stotra) का महत्त्व क्या है?
भक्तामर स्तोत्र (Bhaktamar Stotra) को जैन धर्म के अनुयायियों में बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इसमें आदिनाथ की महिमा, कृपा, और दिव्यता का स्तुति रूप में कवित्व से व्यक्त किया गया है।
क्या इस पाठ को धार्मिक उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है?
हाँ, भक्तामर स्तोत्र (Bhaktamar Stotr का पाठ जैन धर्म के अनुयायियों द्वारा आदिनाथ की पूजा और भक्ति के उद्देश्य से किया जाता है।
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इस पोस्ट में लिखी गयी सारी जानकारियां धार्मिक और सामाजिक मान्यताओं पर आधारित है, कृपया इसे विशेषग्य की सलाह न समझे एवं poojaaarti.com किसी भी जानकारी की पुष्टि नहीं करता है और किसी भी आरती, भजन या कथा को करवाने की विधियों के लिए अपने नजदीकी विशेषग्य की राय ले।
रेखा डनसेना इकोनॉमिक्स में स्नातकोत्तर है और poojaaarti.com के मंदिर , त्यौहार और चालीसा के पोस्ट के अध्ययन और लेख में हमारा सहयोग करती है।